अंतहीन गिरावट का सिलसिला और मार्टिन टेलर का खत

शायद अंशधारकों को ऐसा पत्र कभी पढऩे को न मिल सके। जब नेव्स्की कैपिटल के सफल हेज फंड प्रबंधक मार्टिन टेलर ने कहा कि वह इस वर्ष के आरंभ में हेज फंड बंद कर रहे हैं तो उन्होंने न केवल भविष्य बांचने की क्षमता का प्रदर्शन किया बल्कि हमें उससे भयभीत भी किया। टेलर ने कहा कि वह इसे इसलिए बंद कर रहे हैं क्योंकि चीन और भारत में जो कुछ घटित हो रहा है उसे पढऩा अत्यंत कठिन है। यह भी कि कंपनियां सीमित मात्रा में आंकड़े जारी कर रही हैं ताकि वे निवेशकों और नियामकों की निगरानी से बची रह सकें। 
 
टेलर ने जनवरी के आरंभ में जारी पत्र में लिखा, 'फिलहाल चीन की वास्तविक जीडीपी की वृद्घि दर 7.1 प्रतिशत बताई जा रही है और भारत में 7.4 प्रतिशत। ये दोनों ही अतिरंजित हैं। आंकड़ों के साथ यह छेड़छाड़ चाहे जानबूझ की गई हो या अनजाने में हुई हो, लेकिन वह तेजी से विस्तारित होते निवेश क्षेत्र के लिए वृहद और सूक्ष्म आर्थिक जानकारियां हासिल करना मुश्किल बना देती है।'
 
इस वर्ष की शुरुआत में चीन से आए संकेतों ने जाहिर कर दिया कि टेलर का फैसला एकदम सही था। चीन की मुद्रा और शेयर बाजार प्रबंधन में स्पष्टï अदूरदर्शिता नजर आई। इसने वैश्विक बाजारों को भी प्रभावित किया। इस बीच बैंक ऑफ जापान के गवर्नर हारुहिको कुरोडा ने ब्याज दरों को घटाकर 0.1 प्रतिशत नकारात्मक कर दिया। यह जापान की अपस्फीति से निपटने की कोशिश थी। इसके जरिये यह प्रयास भी किया गया कि कंपनियां कर्मचारियों को बेहतर वेतन भत्ते प्रदान करें। लेकिन जब प्रतिक्रियास्वरूप येन में गिरावट के बजाय तेजी आने लगी तो यह उपाय बेमानी हो गया। उस वक्त एबेनॉमिक्स विफल हो गई। गत सप्ताह जापान ने कहा कि चौथी तिमाही में उसकी जीडीपी 1.4 फीसदी कम हुई है। 
 
नकारात्मक दरों के दायरे की बात करें तो बैंक ऑफ जापान के दर कटौती करने तथा यूरो क्षेत्र में और कटौती के अनुमानों के बीच दुनिया भर के शेयरों की कीमतों में गिरावट देखने को मिली। नकारात्मक अथवा अत्यंत कम ब्याज दरों तथा प्रतिफल में स्थिरता ने बैंकिंग कारोबार को मुश्किल भरा बना दिया है। जापान में 10 साल के बॉन्ड पर प्रतिफल पहली बार नकारात्मक हो गया। 
 
जरा कल्पना कीजिए कि 29 जनवरी को नकारात्मक दरों का फैसला लेने के पहले बैंक ऑफ जापान की क्या स्थिति रही होगी? वे क्या सोच रहे होंगे? क्या किसी ने यह प्रश्न उठाया होगा कि जापानी बैंकों को नकारात्मक ब्याज दर का बोझ ग्राहकों पर डालते हुए परेशानी हो सकती है। यह भी कि रेटिंग एजेंसियां और बैंक विश्लेषक झटपट यह आकलन कर बैठेंगे कि बैंक का परिचालन मुनाफा 8 से 15 फीसदी तक गिर जाएगा। नतीजतन पिछले कुछ सप्ताह के दौरान जापान के बैंकों के शेयरों के दाम 30 प्रतिशत तक गिरे हैं।
 
बैंकों को लेकर अफरातफरी का यह माहौल गत सप्ताह यूरोप और यहां तक कि अमेरिका में प्रवेश कर गया। वहां भी बैंकों ने सन 2008 की गिरावट के बाद जमकर नकदीकरण किया है। इस वर्ष अमेरिकी बैंकों के शेयरों की कीमत में 20 प्रतिशत की गिरावट के बाद जेपी मॉर्गन के करिश्माई मुख्य कार्याधिकारी जैमी डिमॉन ने अपने बैंक में 2.5 करोड़ डॉलर मूल्य के शेयर खरीद कर यह दिखाया कि उनके बैंक की बुनियाद मजबूत है। 
 
भारत और चीन की बात पर वापस लौटें तो हर कहीं आर्थिक दलीलों का अभाव नजर आ रहा है। मंगलवार को सामने आए चीन के जनवरी माह के ऋण संबंधी आंकड़े बताते हैं कि वहां कर्ज में 25 खरब रेनमिनबी यानी 385 अरब डॉलर का इजाफा हुआ है। यह पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 10 खरब रेनमिनबी अधिक है। इसके लिए कुछ हद तक यह बात जिम्मेदार है कि चीन के कारोबारी और बैंक तेजी से विदेशी मुद्रा का कर्ज निपटा रहे हैं क्योंकि वहां मुद्रा का अवमूल्यन किया गया है। फाइनैंशियल टाइम्स के मुताबिक गत सात महीनों में वहां विदेशी कर्ज में 859 अरब रेनमिनबी की गिरावट आई है। 
 
लेकिन नए कर्ज का तकरीबन आधा हिस्सा बुनियादी ढांचे में जाता नजर आ रहा है। इससे पता चलता है कि चीन गैर जवाबदेह अंदाज में कर्ज कम करने के बजाय वृद्घि दर को और बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। जबकि उसका कर्ज जीडीपी की तुलना में 250 प्रतिशत से अधिक है। जापान और चीन के उलट भारत का आर्थिक आकार छोटा है लेकिन भला किसने सोचा होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दल के लोग तथा उनके समर्थक मेक इन इंडिया समिट के दौरान ही अखबारों के पहले पन्ने की सुर्खियों को विश्वविद्यालय छात्रों पर देशद्रोह के आरोप और फिर उन पर शारीरिक हमलों के हवाले कर देंगे। यहां तक कि उन पर अदालत में भी हमला किया गया? या फिर वह घटना जिसमें एक बार फिर वोडाफोन पर अतीत प्रभावी कर का मामला जग जाना, जबकि यह मामला अभी विवाद निस्तारण की प्रक्रिया में है। 
 
टेलर अपने पत्र में कहते हैं, 'हां हम स्वीकार करते हैं कि राजनीति अर्थशास्त्र को प्रभावित करती है और राजनीतिक विश्लेषण हमारी प्रक्रिया का बड़ा हिस्सा रहा है। परंतु इससे पहले कभी भी दुनिया ऐसे नेताओं से इस कदर नहीं संचालित हुई जहां राष्ट्रवाद की दलील यूं सब पर भारी पड़ती हो।' उनका इशारा चीन, भारत, रूस और तुर्की की ओर था। वह लिखते हैं कि यकीनन पारिभाषिक तौर पर राष्ट्रवाद के साथ तार्किक पथ पर चलना मुश्किल है। बाहरियों के लिए उसका भरोसे के साथ अनुसरण करना आसान नहीं। इससे एक उच्च अनिश्चितता वाला माहौल तैयार होता है। 

BY
राहुल जैकब /  February 22, 2016  @ BUSINESS STANDARD

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